Sunday, December 21, 2014

हवाई अड्डों को घूरते लाल बुझक्कड़

हवाई अड्डों को घूरते लाल बुझक्कड़ 



बचपन की किस्से कहानियों से निकलकर लाल बुझक्कड़ आजकल सर्वत्र फैल गए हैं।

कभी वे लोग शादी से पहले डॉक्टरी सर्टिफिकेट को अनिवार्य बना देते हैं, कभी 100/- प्रति माह वाले केबल को जनता के लाभ के लिये 3000/- की सेट टॉप बॉक्स के साथ 875/- प्रतिमाह भुगतान करने का हुकुम सुना देते हैं। सुना है अब वे दिल्ली के हवाई अड्डों को सुधारने के पुण्य काम में लग चुके हैं।

अखबार में खबर थी कि लोग हवाई जहाज़ से यात्रा करते हैं उनके परिचित और परिवार के लोग उन्हें छोड़ने और लेने के लिये हवाई अड्डों पर आते हैं जिससे वहाँ भीड़ हो जाती है। तो ये हाकिम लोग इस भीड़ को इकट्ठे नहीं होने देना चाहते। इसलिये ये ऐसा कुछ करना चाहते हैं लोगबाग हवाई अड्डों पर भीड़ ना करें। सुना है कि ऐसा कोई हुकम आने वाला है कि जो भी वहाँ पाँच मिनट से ज्यादा रुकेगा उससे बहुत भारी भरकम पैसा वसूला जाएगा – सैकड़ों रुपये प्रति पाँच मिनट के हिसाब से।

जिस मंत्री ने, जिस समूह ने, इंजिनियर ने, प्रशासनिक अधिकारी ने इस 6,300 वर्ग एकड़ भूमि पर नक्शे खिंचवाए होंगे उसके दिमाग में क्या भविष्य का कोई अँदाजा नहीं था। क्या उसे नहीं सूझा था कि यात्री आएँगे तो उन्हें लेने और छोड़ने वाले भी आएँगे और वे अपने वाहनों में आएँगे? यदि उसे ऐसा अँदाजा नहीं था तो उसकी गलती का खमियाजा अब आने वाली पीढ़ियाँ क्यों भुगतें?

आप यात्रा किराए में फ्यूल खर्च के ऊपर भी जन-सुविधाओं के नाम पर अनाप शनाप कर लगाते हैं। वे जन-सुविधाएँ कहाँ है यदि उन्हें आप उनकी गाड़ी भी कुछ देर खड़ी नहीं करने दे रहे हैं।

यह जो पाँच मिनट की समय सीमा बाँधी गई है यह केवल लाल बुझक्कड़ लेवल के दिमाग ही कर सकते है। क्या उन्होंने खुद इसका ट्रायल स्वयँ पर करके देखा है? यदि हाँ तो वे सामने आकर बताएँ और करके दिखाएँ। आलीशान दफ्तरों में बैठकर तुगलकी आदेश ना पारित करें।

वैसे भी जब तक लाल बुझक्कड़ी दिमाग समस्यओं का हल खोजने में लगे रहेंगे और और उन्हें तुगलकी ताकत मिली रहेगा तब तक इस जनता को चैन नहीं मिलेगा। इन लोगों को इनकी असफलताओं की सजा दी जानी चाहिए ताकि आगे आने वाले इनके शिष्य ऐसी लापरवाही फिर ना करें और जनता का स्वेच्छाचारी शोषण रोका जा सके।

वर्तमान में एक रिसपॉन्सिव सरकार के होते हुए ऐसा सोचा जा सकता है कि सरकार इस पर समुचित निर्णय लेगी और इन तुगलकी बुझक्कड़ों पर लगाम कसेगी।

THE COMPLETE ARTICLE IS AT THE LINK:

http://www.psmalik.com/charcha/242-lal-bujhakkad

Sunday, November 9, 2014

ये गुरू लोग और खूँटों से बँधा मोक्ष

ये गुरू लोग और खूँटों से बँधा मोक्ष

कल दो सम्भ्रांत महिलाओं से मुलाकात हुई। वे महिलाएँ अपने गुरू जी के दिल्ली आगमन पर लोगों को आमंत्रित करने में लगी हुईं थी। चर्चा के दौरान उन्होंने अपने दो गुरूओं के विषय में बताया। जो बड़े वाले गुरू हैं उनके बारे में बताया गया कि वे अनादि और अनन्त हैं। उनका ना जन्म हुआ है ना ही कभी मरण होगा। और जो छोटे गुरू हैं उनको बड़े गुरू द्वारा अपने संदेश फैलाने के लिये एक सुपात्र के रूप में चुना गया है। जब उनसे पूछा गया कि क्या स्वयं उन्होंने बड़े वाले अनादि और अनन्त गुरू को देखा है या किसी ऐसे व्यक्ति से मिली हैं जिन्होंने उन गुरू को अपनी आँखों से देखा हो। उनका उत्तर नकारात्मक था। उन महिलाओं ने बताया कि उनको बहुत लोगों ने महसूस किया है। उन गुरू को केवल महसूस किया जा सकता है वह भी उन लोगों के द्वारा जो गुरू के सत्सँग में शुद्ध हो गये हों।

1935 के बाद से वियना सर्किल और लॉजिकल पॉज़िटीविस्ट्स दार्शनिकों ने कहा था कि दर्शन की अनेक समस्याओं की हमारी भाषा के अशुद्ध प्रयोग से पैदा होती हैं अतः भाषा में केवल वही बातें कही जानी चाहिएँ जिनके अर्थ सब लोगों की समझ में एक जैसे आएँ। इससे अनेक दार्शनिक भ्रान्तियाँ दूर होंगी। वास्तव में इन्हीं दार्शनिक भ्रान्तियों को हम लोगों दार्शनिक समस्याओं का नाम दे दिया है। जबकि ये मात्र भाषा की अशुद्धियाँ है।

ऐसे किसी गुरू के अस्तित्व को कैसे साबित किया जा सकता है जो जीवित है, सशरीर है परन्तु दिखाई नहीं देता है? उस गुरू को देखने के लिये उसी विशिष्ट सम्प्रदाय के लोगों से सत्सँग लेना पड़ेगा और कितना सत्सँग गुरू को देख पाने के लिये पर्याप्त होगा – यह बात भी उसी सम्प्रदाय के लोग तय करेंगे।

यह कैसी शर्त है? यह कैसा सत्य है? जो इतना बाधित है। जिस सत्य को सभी लोग देख भी नहीं सकते वह यूनिवर्सल (सार्वभौम) होने का दावा कैसे कर सकता है? इन टुकड़ों में बँटे हुए सत्यों को लेकर कोई साधक कैसे एक यूनिवर्सल सत्य तक पहुँच सकता है? हर पाँच कोस पर एक गुरू का ठीया स्थापित है। हरेक गुरू – शिष्य – मँडल के लोग अपने गुरू से बाहर किसी अस्तित्व को स्वीकार नहीं कर पाते हैं। कई बार तो ये शिष्य – गण बिल्कुल कूप मँडूपों की तरह बर्ताव करते हैं।

किसान के घर में कई खूँटे होते हैं। एक खूँटा बैल को चारा खिलाने वाले स्थान पर होता है। एक अन्य खूँटा चारा खा चुकने के बाद बैल के बैठने के लिये होता है ताकि वह आराम से जुगाली कर सके। अन्य खूँटे बैल को सरदी या गरमी से बचाने के लिये बरामदे के अन्दर या बाहर होते हैं।

सभी गुरू केवल अपने मत के द्वारा मुक्ति का संदेश देते हैं। अपने से बाहर अन्य सभी विचारों को ये गुरू लोग खारिज करते हैं। किसी भी बाहरी विचार को ये लोग गंदा या ‘अपवित्र तक कह देते हैं। ये लोगों को अपने से बाँधते हैं और दूसरों से वर्जित करते हैं। ये गुरू धार्मिक खूँटों की तरह व्यवहार करते हैं। ये कहते हैं कि इनके साथ बँधकर ही आप मुक्त हो सकते हैं, मोक्ष पा सकते हैं।

विडम्बना यह है कि बहुत बड़ी संख्या में लोग स्वेच्छापूर्वक इन खूँटों के साथ बँध गये हैं और खूँटों से बँधा हुआ मोक्ष पाने के लिये लालायित हैं।

शिव कहते हैं:
न मे बन्धो न मोक्षो मे भीतस्यैता विभीषिकाः ।
प्रतिबिम्बमिदं बुद्धेर्जलेष्विच विवस्ततः ।। (वि.भै. का. 135)

न तो बन्धन कुछ होता है और न ही मोक्ष कुछ होता है। ये तो डरे हुए लोगों को और डराने वाले साधन हैं। यह संसार बुद्धि का वैसे ही प्रतिबिम्ब है जैसे जल में सूर्य का होता है।

THE COMPLETE ARTICLE IS AT




Friday, October 24, 2014

QUACKS, MEDICAL MAFIA AND THE GOVERNMENT

QUACKS, MEDICAL MAFIA AND THE GOVERNMENT


§ There is an acute shortage of doctors in India.
§ Thousands of patients die because doctors were not available to them.
§ The government is going to allow semi-skilled doctors to provide medical care where the skilled ones are not available.
§ Those who see this profession as a minting occupation than an opportunity to serve have started raising hue and cry.
§ 45% of medical trade is occupied by very simple prescription e.g. pain killers, gastric problems, depression problems etc.
§ Specialized medical treatment share is only 8.7% of the complete medical trade.
§ As per views by a survey 87% consumers are not satisfied the way they were treated with by these so called Trained Medical Experts.
Like other developing countries India is also facing an acute shortage of trained medical practitioners. As per statement of the concerned minister in November 2011 in India there was 1 doctor for 2000 patients. This medical population is usually concentrated in big cities. The picture assumes a more horrible face in villages and small towns. As per a report in The Guardian newspaper in 2009 in India one infant died every 15 seconds in want of a proper medical help.
To improve upon this grim scenario the government has decided:

§ Giving AYUSH docs the right to prescribe allopathic drugs after a one year course.
§ A compulsory Bachelor of Rural Health Care course
§ AIIMS-like institutions in various parts of the countries. They are going to be located in Patna, Bhopal, Bhubaneshwar, Jodhpur, Raipur and Rishikesh.
§ A compulsory bond that will force the docs to return to India after completing their medical education abroad.
§ Setting up of a centralized National Commission of Human Resources and Health which will have all other medical bodies in the country under its jurisdiction.
In response to this govt. initiative some people have started criticizing it. In their arrogant style they have coined a term – Hybrid Doctors. Critics are mostly those groups and people who are least bothered about the welfare of the country or the human beings but are largely guided by their capabilities of earning money and adversities related to it. For this group of thinkers (!) they and their needs always stand first in the queue.
THE COMPLETE ARTICLE


रोग, भोग और योग के आढ़तिये


रोग, भोग और योग के आढ़तिये


  • चारों तरफ़ गुरुओं की धूम मची है। हर विपणक के यहाँ योग से सम्बन्धित सामग्री बिक रही है। चारों ओर आढ़त का बाजार लगा है। लोग योग बेच रहे हैं  कुछ अन्य लोग योग खरीद रहे हैं। कोई आसन बेच रहा है, कोई अच्छे वाले आसन ईजाद कर रहा है। कोई ध्यान के सस्ते दाम लगा रहा है। किसी दुकान पर कुण्डलिनी उठवाई जा रही है।
  • कुछ लोग प्राणायाम बेच रहे हैं। बता रहे हैं कि माल अच्छा है, साथ में गारन्टी दे रहे हैं कि मोटापा कम कर देगा। इस ध्यान- योग के बाजार में कुछ दुकानों पर एक्सेसरीज़ भी बिक रही है।
  • ज्यादा भीड़ उन दुकानों पर है जहाँ एक्सेसरीज़ या तो हर्बल है या फिर उन्हें आयुर्वेद में से कहीं से आया बताया जा रहा है। पूरे बाजार  में चहल पहल है। चतुर सुजान, उत्तम वस्त्र पहनकर दुकानों के काउन्टर पर विराजे हुए हैं। मुद्राओं को रेशमी थैलियों में बन्द करके नीचे सरका रहे हैं।
  • जब योगसूत्र रचा गया था । पातंजलि के सामने कैलोरी बर्न की समस्या नहीं थी जबकि आज की मुख्य समस्या ही कैलोरी बर्न की है। पातंजलि के साधक के सामने कुण्ठा और आत्मरोध की वह घातक स्थिति नहीं थी जो आज के मनुष्य के सामने बॉस की डांट, बच्चों के एडमिशन, पुलिस की हेकड़ी, काम के दबाव, गलाकाट कम्पीटीशन आदि ने पैदा कर दी है। आज एल्कोहलिकों की तर्ज़ पर वर्कोहलिक पैदा हो रहे हैं। ये सब पातंजलि और योगसूत्र के लिए अज्ञात थीं अतः योगसूत्र के भीतर इनका निदान भी संभव नहीं है।


रोग, भोग और योग के आढ़तिये

THE COMPLETE ARTICLE IS AT


HOMEOPATHIC TREATMENT OF EBOLA VIRUS DISEASE

HOMEOPATHIC TREATMENT OF EBOLA VIRUS DISEASE



  • Ebola is a disease of humans and other mammals caused by an Ebola virus.
  • The symptoms start appearing two days to three weeks after getting the infection of this virus.
  • Its immediate symptoms are fever, sore throat, muscle pain and headaches.
  • Around this time, affected people may begin to bleed both within the body and externally. This is called internal and external hemorrhage.
  • Death, if it occurs, is typically 6 to 16 days from the start of symptoms and often due to low blood pressure from fluid loss.



BUT DON’T BE SCARED, HOMEOPATHY HAS THE ANSWER

The first treatment is likely to be given with the help of ARSENICUM ALBUM and ACONITUM.
THE COMPLETE ARTICLE IS AVAILABLE AT:

Sunday, August 3, 2014

मोदी का Niche Market प्रयोग

मोदी का Niche Market प्रयोग

 

1984 में काँग्रेस ने एक क्लीन स्वीप मैन्डेट प्राप्त किया था और भाजपा को मात्र दो सीटें मिलीं थी। तब लोगों ने भाजपा के खत्म हो जाने की बात की थी। लेकिन श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इसे एक अन्य प्रकार से परिभाषित किया था। उन्होंने कहा था कि भाजपा ने सौ से अधिक स्थानों पर दूसरा स्थान प्राप्त किया है जो उसकी क्षमताओं और भविष्य के सुनहरेपन की ओर संकेत करता है। उनकी यह बात इतिहास में सच साबित हुई भी है। राजनीति में कई बार मरिचिकाएँ पैदा होती हैं। होता कुछ है तथा दिखाई कुछ और देता है।

1984 जैसा ही कुछ तीस बरसों के बाद 2014 में हुआ हालाँकि यह बिल्कुल भिन्न कारणों से हुआ। 1984 में यह स्वर्गीय श्रीमति गाँधी के प्रति सहानुभूति से पैदा हुआ था और 2014 में यह श्री मोदी के करिश्मे से हुआ है। एक दल और उसके गठबँधन को लोगों ने सिर आँखों पर बैठा लिया है और ऐसा लग रहा है कि अन्य सभी दल राजनीतिक भू-दृश्य के पिछवाड़े में फैंक दिये गये हैं। काँग्रेस को पहली बार 50 से भी कम सीटें मिलीं हैं। पूरा उत्तर प्रदेश भगवा हो गया है। इस रणभूमि के दो जाने माने यौद्धा – सपा और बसपा, खून से लथपथ पड़े दिख रहे हैं। प्रथम दृष्टया उत्तर प्रदेश से गैर-भाजपा राजनीति का विलोप हो गया लगता है। यही सामने बोर्ड पर लिखा संदेश दिखाई पड़ता है। प्रश्न है कि यह संदेश सच्चाई है या केवल आँखों का धोखा मात्र है। यह राजनीतिक सच्चाई है यह यह भी कोई दोपहरी वाली मरीचिका ही है जिसके नीचे या पीछे कुछ अलग तरह का सच है। इसके गंभीर विवेचन की आवश्यकता है। आओ देखें।

सबसे पहले 2014 के रंगमंच को निहारते हैं तो काँग्रेस अपने पुराने नारे (गरीबी हटाओ) के एक नए संस्करण के साथ खड़ी है और हाथों में उसने – खाद्य सुरक्षा बिल थाम रखा है। मोदी विकास वाद की हुँकार भर रहे हैं। गुजराती गवर्नेंस का मुकुट भी उन्होंने पहन रखा है। समाजवादी पार्टी अपने सामाजिक समरसता वाले विचारों और अपनी सरकारी उपलब्धियों की किताब के पाठ सुनाती पड़ रही है। एक अन्य तरफ़ बहनजी अपने नीले रथ पर सवार हैं। लेकिन उनके अस्त्र शस्त्र वही परमपरागत पहचान वाले लग रहे हैं जो पिछले चुनावी रण में भी इस्तेमाल किये गये थे।

इस बार इस चुनाव को मोदी ने अपनी शर्तों पर लड़ा है। इस बार के चुनाव में यह बात मोदी ने तय की कि इस चुनाव की कसौटी क्या होनी चाहिए और फिर उस कसौटी पर खुद को सफल दिखा दिया। मोदी ही तय कर रहे थे कि कौन सा नायक इस चुनाव 2014 की पटकथा में क्या भूमिका निभाएगा? मोदी के इतर किसी व्यक्ति या दल का यह पता ही नहीं था कि किया क्या जा रहा था? और जब तक उन्हें पता लग पाता तब तक चुनावी नतीजे आ चुके थे। कुछ गंभीर विश्लेषक तक यहाँ तक कहते हैं कि न सिर्फ अन्य विपक्षी दलों बल्कि जनता तक को पता नहीं चला कि इस चुनाव में वस्तुतः हो क्या रहा था? इस चक्रव्यूह का लाभ यह हुआ कि ना तो विपक्षी दल इसका हल ढूँढ पाए और ना ही मोदी के खिलाफ कोई प्रभावी वार कर पाए।

अब इस सारी तकनीक को सरल रूप में समझते हैं। अंग्रेजी में नॉर्डिक मूल का एक शब्द है – निच् (Niche)। जब इसे बाजार प्रणाली के संदर्भ में इस्तेमाल किया जाता है तो यह कहलाता है निच् मार्केट (Niche Market)। इसे प्रयोग के द्वारा समझना आसान रहेगा। उदाहरणार्थ बाजार में दस फूड सप्लीमैंट्स हैं जो बालकों को प्रचुर कैलशियम उपलब्ध करवाने का दावा करते हैं। दसों फूड सप्लीमैंट्स में बिक्री के लिए घमासान मचा हुआ है। प्रचार पर भारी पैसा खर्चा किया जा रहा है। अचानक एक फूड सप्लीमैंट का निर्माता जनता को कहना शुरू करता है कि उसके सप्लीमैंट में एक ऐसा साल्ट भी है जो सप्लीमैंट वाले कैलशियम को शरीर तक पहुँचाता है। बिना साल्ट वाला कैलशियम किसी मतलब का नहीं है। वह यूँ ही शरीर से बाहर फेंक दिया जाएगा। साल्ट के बिना कैल्शियम तो बस मिट्टी जैसा है। अब उपभोक्ता सब कुछ भूलकर साल्ट वाले कैलशियम को खरीदने के लिए दौड़ पड़ते हैं। साल्ट वाला सप्लीमैंट बाजी मार लेता है। शेष सप्लीमैंट समान गुणवत्ता के होते हुए भी पीछे रह जाते हैं।

इस उदाहरण वाली बाजार प्रणाली में न सिर्फ प्रोडक्ट बेचा जा रहा है बल्कि एक ऐसी कसौटी भी साथ दी जा रही है जिस पर उस उत्पाद को कसा जाएगा। सामान्य नियमों के तहत् यह कसौटी उपभोक्ता की खुद की होनी चाहिए परन्तु बाजार की चतुराई यह है कि प्रोडक्ट का निर्माता स्वयं ही इस कसौटी को रच कर उपभोक्ता को थमा देता है। अब प्रोडक्ट भी उसी का है और प्रोडक्ट को जाँचने की कसौटी भी उसी निर्माता की है। अतः अब लाभ भी निश्चित ही उसी का हो जाता है। चुनाव 2014 में यही मोदी ने भी किया है।

राजनीति में इस निच् मार्केट का यह पहला प्रयोग नहीं है। श्रीमति इन्दिरा गाँधी – गरीबी हटाओ का सफल निच् मार्केट प्रयोग 70 के दशक में कर चुकी हैं। कुछ पहले 2013 में श्री केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा में यही प्रयोग किया था। वहाँ उनका निच् था – भ्रष्टाचार उन्मूलन। केजरीवाल के पास भ्रष्टाचार उन्मूलन का कोई धवल रिकार्ड नहीं था बस जोरदार अन्ना आन्दोलन के सहारे उन्होंने सफलता पूर्वक यह दिखा दिया कि पूरी दिल्ली में केवल वही भ्रष्टाचार उन्मूलन कर सकते हैं। हालाँकि विधानसभा जीतने के बाद उन्होंने अपने निच् मार्केट में कुछ डाइल्यूशन किया। समाज-सुधार व साम्प्रदायिकता आदि मुद्दे जोड़ दिये। अनुभव कम था सो लोकसभा जीतने की जल्दबाजी में वो यह नहीं देख पाए कि साम्प्रदायिकता मुद्दे के उनसे बड़े राजनीतिक व्यापारी तो चुनावी बाजार में उनसे पहले से ही मौजूद थे। निच् मार्केट के डाइल्यूशन और कुछेक अन्य कारणों ने केजरीवाल को लुप्तप्रायः प्रजातियों की श्रेणी में लाकर रख दिया।

मोदी का निच् मार्केट था – विकास। इसे उन्होंने कुछेक सहायक सब- निच् मार्केट (Sub Niche Market) प्रत्ययों जैसे सबका विकास सबका साथ, भारतीय गौरव, सरकारी अकर्मण्यता के प्रति रोष आदि के साथ जोड़ दिया। और कमाल हो गया। विरोधियों को सूझा ही नहीं कि साम्प्रदायिकता आदि को लेकर जिस मोदी विरोध की तैयारी उन्होंने कर रखी थी और जो अब अचानक भोथरे हो गए थे उनका क्या किया जाए ?  और जब तक विपक्ष इस किंकर्त्तव्यविमूढ़ता से बाहर आता तब तक चुनाव खत्म हो चुके थे। इस नई व्यवस्था में चहुँ ओर मोदी ही मोदी हैं।

तो क्या यह राजनीतिक अवसान शुरू हो चुका है ? क्या भारतीय राजनीति अपने चरम् विकास को प्राप्त कर चुकी है ? क्या भारत में राजनीति समाप्त होने वाली है ?

भारत में सामाजिक विषमताओं का इतिहास रहा है। इसीलिये 1929 के रावी सम्मेलन में नेहरू जी को अपने समाजवादी सरोकारों को स्वीकार करना पड़ा था। भारतीय चुनावों में कांग्रेस की चरम विजय गाथाओं के बावजूद किसी ना किसी रूप में समाजवादी आंदोलन भारत में एक अनिवार्यता बनी रही। वर्तमान में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी उसी समाजवादी आंदोलन के विकसित रूप हैं।

विकास की जिस अवधारणा को मोदी जी अवतरित करना चाहते हैं वह मूल स्वरूप में लगभग वही है जिसे नरसिंह राव सरकार ने शुरू किया था और मनमोहन सरकार ने जिसे पाला पोसा था। अब तक जिन सुधारों की बात मोदी जी ने की है वे केवल कॉस्मैटिक सुधार हैं। मोदी द्वारा प्रतिपादित सुधार नरसिंह-मनमोहन सिद्धाँत से आमूल चूल भिन्न नहीं हैं। मनमोहन सिंह के लिये अस्वीकार्यता और मोदी की स्वीकार्यता के बीच केवल बालिश्त भर का ही अंतर है। इस सिद्धाँत का प्रतिछोर अभी भी सामाजिक न्याय का सिद्धाँत है जो आज के समय में भी केवल सपा और बसपा ने ही थाम रखा है। यदि मोदी का विकास इस देश का सपना है तो सामाजिक न्याय यहाँ की हकीकत है। जिस समय भी आप नींद की खुमारी से बाहर आएंगे तो हकीकत की जमीन पर ही खड़ा होना होगा।

सामाजिक न्याय को हकीकत कहने का अर्थ यह नहीं कि नेहरू जी के प्रजातान्त्रिक समाजवाद को पुनर्जीवित किया जाए या आचार्य नरेन्द्र देव के किसी नए अवतार को खोजा जाए। इतिहासों में दोहराए जाने की सुविधा नहीं होती। यहाँ सदैव नूतनता ही फलती है। पुराने को मिटना होता है। समाजवाद की पारम्परिक अवधारणा में मुफ्त राशन और सस्ते राशन की सुविधाओं की बात की जाती थी अब उतने से काम नहीं चलने वाला है। सामाजिक न्याय की नई अवधारणा में भी राशन की पूरी मात्रा या मिट्टी के तेल की सुविधा के बजाय आधुनिक सोच की जैसे – समाज के अंतिम व्यक्ति को बेजा कराधान से मुक्ति, इंस्पेक्टरों के कहर से सुरक्षा, नए सॉफ्टवेयरों के विकास का ढाँचा आदि को विकसित करना होगा। विचार को मुफ्त लैपटॉप वितरण से भी आगे सुगम इलेक्ट्रॉनिक विकास का सोचना होगा। जैसे जैसे समय आगे बढ़ता है सामाजिक न्याय की अवधारणा भी अपने अर्थों में विकसित होती है। और इसे होना भी चाहिए। ताकि विकास एक लुभावने नारे की परिधि से बाहर निकल कर सामाजिक न्याय की अवधारणा का ही एक आयाम बन जाए। जिस दिन ऐसा हो पाएगा इक्कीसवीं सदी का सामाजिक न्याय मूर्तिमान होकर हकीकत बन जाएगा।

लोकतंत्र में केवल दो ही प्रकार के समय होते हैं। पहला चुनावों का समय और दूसरा चुनावों की तैयारी का समय। मोदी ने इस सिद्धाँत को समझा। भीषण तैयारी की और चुनाव जीत गये। फिलहाल यह चुनाव तैयारी का समय है। अब देखना यह है कि कितने लोग या दल इस सिद्धाँत को समझ कर चुनाव की तैयारी के समय का सदुपयोग कर पाते हैं ताकि चुनाव समय पर वे  अपनी सीटें जीतते हुए खुशी महसूस कर पाएँ।


THE COMPLETE ARTICLE IS AT

http://psmalik.com/charcha/228-vichardara

Monday, June 9, 2014

कालाधन सिर्फ काला नहीं होता

कालाधन सिर्फ काला नहीं होता




जो भी धन स्थापित व्यवस्थाओं के उल्लंघन से हासिल किया जाता है वही काला धन होता है। सरल शब्दों में कहें तो बिना टैक्स चुकाए जो धन सरकार से छिपाया जाता है वह काला धन होता है।

जब सरकार की नीतियाँ अस्थिर, शोषणकारी और दमनपूर्ण होंगी और उसके साधन हर स्थान पर उपलब्ध नहीं होंगे तो जनता का सक्षम वर्ग भविष्य की सुरक्षा के लिए अपनी आय को छुपा लेता है और काले धन का निर्माण करता है। ऐसा भी संभव है कि आय उन साधनों से हुई हो जिन्हें सरकार ने प्रतिबंधित किया हुआ है। जैसेकि प्रतिबंधित वस्तुओं की बिक्री करके या घूस आदि लेकर।

काले धन के कई प्रकार हैं।
·       आम लोगों का काला धन
·       उद्योगपतियों का काला धन
·       राजनेताओं का काला धन
·       ब्यूरोक्रेट्स का काला धन
1.     आम लोग अपनी घोषित कमाई के अलावा भी एकाध काम जैसे – सुबह अखबार बेचकर, लिफाफे बना कर, छोटी मोटी मशीनें लगा कर, कोई टॉफी-बिस्कुट की दुकान खोलकर आदि करके कुछ कमाई कर लेते हैं और सरकार से छुपा लेते हैं। इस धन का मुख्य उद्देशय अपने सामाजिक भविष्य को सुरक्षित करना होता है। आकार में यह कालाधन इतना सूक्ष्म है कि सरकारें इस पर आमतौर से विचार भी नहीं करतीं।
2.     उद्योगपति अपने उद्योगों से होने वाली कमाई का पूरा ब्यौरा ना देकर कुछ काला धन कमाते हैं। कई बार इसका आकार बहुत बड़ा भी हो सकता है। उद्योगपति को इस कालेधन की जरूरत सरकारी बाबूओं, अधिकारियों और मजदूर नेताओं आदि की जरूरतें पूरी करने के लिये होती है।
a.      किसी उद्योगपति के पास कुछ काला होता है तो वह उसका इस्तेमाल नया उद्योग खड़ा करने में करता है जिससे अधिक उत्पादन और रोजगार पैद होता है। भारत जैसी अधकचरी अर्थव्यवस्थाओं में यदि ऐसे काले धन को समाप्त किया गया तो यह उद्योगों के लिये ही विनाशकारी होगा। उद्योग तबाह हो जाएँगे। इस काले धन को समाप्त नहीं किया जा सकता।
3.     कालेधन का एक अन्य प्रकार राजनेता के पास होता है। कई राजनेताओं को राजनीति में बचे रहने के लिए अनेक ऐसे जनकल्याणकारी कार्य करने होते हैं जिनके लिए सरकार से कोई धन प्राप्त नहीं होता। बाहरी दिल्ली का एक प्रसिद्ध युवा नेता अपने व्यक्तिगत पैसे से एक हजार के लगभग वृद्धाओं को मासिक पेंशन देता है।
a.      राजनेताओं का कालाधन एक बुरे काम के लिए भी इस्तेमाल होता है। यह राजनीतिक अस्थिरता और कानूनी अराजकता के लिए भी प्रयोग किया जाता है। उस अवस्था में यह देश-समाज के लिए नुकसानदेह होता है।
b.     राजनेताओं के काले धन के बहुमुखी इस्तेमाल की संभावनाओं के मद्देनज़र इसे पूरी तरह नष्ट करने की सोचना उचित नहीं होगा। राजनेताओं के कालेधन को नष्ट करने की बजाय इसे रेगुलेट करने की सोचनी चाहिए। इसे नियंत्रित किया जाना चाहिए।
4.     सबसे बुरा कालाधन ब्यूरोक्रेट्स का कालाधन होता है। यह धन आम आदमी के शोषण से पैदा होता है। ब्यूरोक्रेट्स का काला धन आम जनता की परचेजिंग पावर को घटा कर पैदा किया जाता है अतः यह बाजार के खिलाफ काम करता है। दूसरा यह उत्पादन को बढ़ाए विना ही बाजार में (काला)धन झोंक देता है अतः महँगाई को बढ़ाता है। यह ही वह कालाधन है जो स्विस बैंकों की पासबुकों के पृष्ठ सँख्याओं को बढ़ाता है। यही वह कालाधन है जिसको बढ़ाने के लिए बाबू और अधिकारी मिलकर आम जनता के कामों को रोकते हैं और कानूनों की अबूझ पेचीदगियाँ पैदा करते हैं। यह ही वह धन जिसकी मात्रा अकूत होती है। आम आदमी इसी काले धन से त्रस्त होता है। इसी पर लगाम लगाए जाने की जरूरत है।


कालेधन की समस्या पर काम करने के लिए सरकार को अपनी सोच स्पष्ट करनी होगी- कौन सा कालाधन? वह क्यों पैदा होता है? उसे पैदा करने में वर्तमान व्यवस्था के कौन से तत्त्व जिम्मेदार हैं? पूरी व्यवस्था में कौन से सुधार दरकार हैं जिनके बाद कालेधन की जरूरत ही ना रहे? इन सभी आधारों पर सोचकर ही कालेधन पर कुछ युक्तिसँगत कहा जा सकेगा।

इसी दिशा में एक सुझाव यह भी है जितना संभव हो कालाधन अनुमोदित, नियंत्रित या प्रतिवंधित किया जाए और शेष कालाधन जिस पर किसी भी प्रकार का कानूनी आचरण संभव नहीं है उसका राजनीतिक-सामाजिक उपयोग किया जाए। एक ऐसे कोष की संभावना पर विचार किया जा सकता है जो लगभग स्विस बैंको की तर्ज पर हो और जिसमें जमा करवाए गये धन के स्रोत के विषय में कभी भी ना पूछे जाने की गारँटी दी जाए। ऐसे अज्ञात-स्रोत वाले धन के स्वामियों को ब्याज ना दिया जाए बल्कि एक बहुत मामूली सी राशि उनके धन को हिफ़ाजत के साथ सुरक्षित रखनें के लिए उनसे ही ले ली जाए। बस सरकारी नियँत्रण इतना ही हो कि ऐसे जमाकर्ता एक निश्चित समय जैसे एक या दो वर्ष तक उस रकम को खाते में बनाए रखने का वचन दें ताकि सरकार के पास उस धन का एक निरंतर प्रवाह और निवेश बना रहे।

THE COMPLETE ARTICLE IS AVAILABLE AT



Thursday, May 22, 2014

समुद्र मंथन की समाप्ति और एक बिलखता हुआ योद्धा

समुद्र मंथन की समाप्ति और एक बिलखता हुआ योद्धा


भारतीय चुनावी समुद्रमंथन अब पुरा हो चुका है। भिन्न भिन्न देव-अदेव अपने अपने हिस्से के ऐरावत, कामधेनु, कल्पतरु और हलाहल पा चुके हैं। इच्छुक लोग अमृत-वितरण के लिए लाईन में बैठ चुके हैं। कमोबेश शांति सी ही लग रही है कि कहीं दूर से कोई कैटभ जैसी चीत्कार सुनाई पड़ती है। आओ देखें कि क्या हुआ?

...

आजकल एक कलाबाजी श्रीमान् निरन्तर आग्रहशील नेता जी और उनके सखा करते नजर आ रहे हैं। ये लोग अनवरत् आन्दोलनकारी हैं।  सामान्य जीवन भी इनके लिए एक आन्दोलन ही है।  चुनाव निकट देखकर इनके भीतर का आन्दोलन फिर जाग उठा है। जनता ने इन्हें जिस बुरी तरह से नापसंद किया है ये उससे भी कोई सबक नहीं लेना चाहते हैं। अब इन लोगों ने बलात् प्रसिद्धि के लिए कोर्ट-कचहरी को भी अपना अखाड़ा बना लिया है।  जब आप बनारस में लोकसभा चुनाव लड़ने के लिये गए थे तो भी एक लेख इसी मंच से लिखा गया था । आज चुनाव बाद वह लेख अपने सत्य के साथ आपके सामने खड़ा है।

हर आरोपी को अपनी उपस्थिति की जमानत देनी होती है। इसके लिए एक फॉर्म जिसे मुचलका या पर्सनल बॉन्ड कहते हैं उस पर साईन करने होते हैं। इसके लिए कोई नकद पैसा नहीं देना पड़ता। और यह कानून के द्वारा स्थापित एक प्रक्रिया है। सभी नागरिक इसका पालन करते हैं। क्योंकि कोई भी व्यक्ति कानून से बड़ा नहीं हो सकता तो सभी इस प्रक्रिया को समान रूप से मानते चले आ रहे हैं। श्रीमान केजरीवाल का कहना है कि वे ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि उनका उसूल ऐसा करने के खिलाफ़ है। लोग पूछ रहे हैं कि केजरीवाल जी देश कानूनों से चलेगा या आपके खुद के उसूलों से चलेगा। वे उसूल जो आपकी सुविधा के मुताबिक कभी भी बिना पूर्व चेतावनी के बदल जाते हैं और कोई भी ऐसा नया रूप धर लेते हैं जिससे आपको अपना फ़ायदा होता है।

आजकल का समय राजनीति में प्रपंच करने का नहीं रह गया है। जनता परफॉर्मैंस चाहती है। परफॉर्मैंस के नाम पर धरने, भीड़, सड़क जाम और बेकार की नौटंकियाँ आजकल जनता को आकर्षित नहीं करती हैं। इसलिए ये कैलकुलेट अब आपको करना है कि बाकी का समय आप नए प्रपंचों को अविष्कृत करने में लगाएँगे या जनता की सेवार्थ कुछ सच्चे काम कर के दिखाएँगे।

सँभलने के लिये समय बहुत ज्यादा नहीं बचा हुआ है।


FOR COMPLETE ARTICLE PLEASE VISIT THE LINK
http://psmalik.com/just-chill-area/215-samudra-manthan

Monday, March 3, 2014

An Amazing Case of Blood Pressure

An Amazing Case of Blood Pressure


The patient was a judge by profession; aged about 50 years.

He was having blood pressure for about last 30 years.

He is plethoric in appearance but this plethora was not flabbiness. He is more muscular and solid. He appears to be quite calm and peaceful. His cholesterol is 225+ and LDL is 140+. His blood sugar is presently 170+. His normal blood pressure goes up to 160+/120+ and pulse 120.

For Blood sugar he was given daily 10 drops of a mixture of (Syzygium, Cephalandra and Gymnema Sylvestra) in half cup of water. The problem of diabetes was sorted out.

Keeping in view his life style, his silent personality and a tendency to stick to his honesty doses of Aur Met was given. It always ended in an aggravation.

Nux Vom was partially effective along with partial reliefs from Bry and Alum. A cumulative effect was reduction in the requirement of Amlopress AT and Telma.

One dose of Merc 10M and subsequently Arg Nit 10M completely changed the perspiring skin and aggravation from heat. The patient now was a chilly patient. For last one year he never complained of the heat. He always felt a need of warmth around him.

One day the whole course was changed.

During a personal discussion, about 20 days back he opened him how he was helpless against the court-administration, court-system of administering law, the police system, his seniors and even his juniors.

He told that he was just a face of the system but was quite vulnerable to the adversaries. He disclosed that he was just a component of a big show where the power is not exercised but rather it flows.

This gave me hint of rubrics:

Plumbum Concepts Jan Scholten

  • Empty Weak Leadership Management
  • Diverting Responsible
  • Indifferent King
  • Formal Distant Dignified Haughty
  • Covering up Alone Isolation


On these rubrics I got an idea and one dose of Plb 200 was given. He got an unprecedented relief in his anxiety and feeling in nape of neck, temples and occiput. For next 4 days he did not need any BP medicines. On 5th day he asked for I dose of Amlopress AT and Telma. It was given. After a few hours a second dose of Plb 200 was given. 6 days have passed since then and no need of BP medicines was felt by the patient.


COMPLETE ARTICLE IS AT THE LINK

Thursday, February 20, 2014

महापुरुषत्व खोजता एक बेचैन फ़कीर

महापुरुषत्व खोजता एक बेचैन फ़कीर


यह बहुत अधिक रहस्य नहीं है कि महापुरुषत्व क्या होता है देशकाल की परीक्षा में खरा उतरने पर स्वयँ इतिहास उन्हें यह विरुद सौंप देता है।

अपनी जिद के आधार पर यह महापुरुषत्व कभी नहीं छीना जा सकता है। न लालू यादव ऐसा कर पाए और न ही अरविन्द केजरीवाल इसमें सफल होते दिख रहे हैं। आज की विचार मीमाँसा में देखते हैं कि क्या कोई अन्य ऐसा कर सकेगा?

अन्ना हजारे रालेगण सिद्दी में महाराष्ट्र में धरने दिया करते थे। उनके शब्दों में वे आन्दोलन किया करते थे।

पिछले दिनों उन्होंने “साड्डा हक़ एत्थे रख” के अन्दाज़ में यह भी दिखाने की कोशिश की है कि यदि समाज उन्हें महापुरुषत्व नहीं देता है तो वे इसे बलपूर्वक ले लेने का दम भी रखते हैं।

आओ विवेचन करें।

अन्ना एक मध्यम स्तर की शिक्षा पाए हुए पूर्व सैनिक हैं। उनकी वीरता पर प्रश्न नहीं उठा रहे हैं परन्तु उनका ज्ञानमीमाँसक पक्ष हमेशा सबूतों का अभाव झेलता रहा। जब शरद पवार पर किसी दुस्साहसी लड़के ने हाथ उठाया तब श्री अन्ना ने पहला प्रश्न यही पूछा था कि क्या एक ही मारा?

उन्होंने जनता से कहा कि उन्होंने अरविन्द केजरीवाल जैसा जुझारू समाजसेवी दिया है लिहाजा उन्हें महात्मा गाँधी द्वितीय माना जाए और केजरीवाल से कहा कि उन्होंने केजरी को समाज में स्थापित किया है अतः उन्हें चाणक्य द्वितीय माना जाए।

उधर केजरीवाल के पराक्रम और हस्तलाघव से अन्ना घायल से हो गए। उन्हें नेपथ्य में जाना अखरने लगा। तब उन्होंने रालेगण सिद्दी द्वितीय शुरू किया। राहुल गाँधी की प्रशँसा की और केजरीवाल के एक सरदार गोपाल राय को डाँट लगाई। कुछ दिन अखबार में छपे। लेकिन पर्याप्त नहीं छपे।

फिर दिल्ली आए। कहा कि केजरी सरकार को गिरवाकर भाजपा – काँग्रेस ने अपने पाँव में कुल्हाड़ी मारी है। अब तो केजरी के पचास विधायक दिल्ली में आएँगे। मगर केजरी उन दिनों बहुत व्यस्त थे और अन्ना को कोई प्रतिदान नहीं दे पाये।

लिहाजा अन्ना एक आखिरी जंग के लिए हावड़ा के किनारे पहुँच गये। ममता बैनर्जी के सिर पर हाथ रखने के लिए। वहाँ जाकर हाथ रखा भी। ममता को दिल्ली आने के लिए न्यौता भी दिया। माना जा रहा है कि ममता दिल्ली आएँगी और केजरी को सबक सिखाएँगीं। उस केजरी की यह मजाल कि मुझे – अपने गुरू को अनदेखा करे।

जनता हतप्रभ है। यह क्या हो रहा है? केजरीवाल, राहुल, पुनः केजरी और अब ममता – आखिर अन्ना किसे तलाश कर रहे हैं। वे इतने बेचैन क्यों हैं? वे क्या सिद्ध करना चाह रहे हैं? वे क्या पाना चाह रहे हैं? क्या वे इस भटकाव में अपने लिए एक वह महापुरुषत्व तलाश रहे हैं जिसे पाने में वे ऑलरेडी लेट हो चुके हैं? कस्तूरी मृग की तरह फिरते अन्ना को देखकर कुछ सुजान लोग पूछ रहे हैं कि महापुरुषत्व हथियाने का यह क्या उचित तरीका है? और अगर इस तरह से महापुरुषत्व यदि हथिया लिया भी जाता है तो बिना पात्रता के वह आखिर टिकेगा कितने दिन?

THE COMPLETE ARTICLE IS AT THE LINK